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सगुन: May 2012

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जनभाषाओं के साहित्य का साझा मंच. Tuesday, May 29, 2012. मन में नेह के तार बहुत बा. भोजपुरी ग़ज़ल. मन में नेह के तार बहुत बा. ई नदिया में धार बहुत बा. तनिको चूक के मौका नइखे. गरदन पर तलवार बहुत बा. सौ एके छप्पन के आगे. पर्चो भर अखबार बहुत बा. काहे गांव से भगत बा ड. गांव में कारोबार बहुत बा. के अब केकर दुःख बांटे ला. बनल रहे व्यवहार बहुत बा. मिल जाये त कम मत बुझिह. चुटकी भर संसार बहुत बा. देवेंद्र गौतम. Labels: भोजपुरी. Subscribe to: Posts (Atom). भोजपुरी. Simple theme. Powered by Blogger.

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सगुन: मन में नेह के तार बहुत बा

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जनभाषाओं के साहित्य का साझा मंच. Tuesday, May 29, 2012. मन में नेह के तार बहुत बा. भोजपुरी ग़ज़ल. मन में नेह के तार बहुत बा. ई नदिया में धार बहुत बा. तनिको चूक के मौका नइखे. गरदन पर तलवार बहुत बा. सौ एके छप्पन के आगे. पर्चो भर अखबार बहुत बा. काहे गांव से भगत बा ड. गांव में कारोबार बहुत बा. के अब केकर दुःख बांटे ला. बनल रहे व्यवहार बहुत बा. मिल जाये त कम मत बुझिह. चुटकी भर संसार बहुत बा. देवेंद्र गौतम. Labels: भोजपुरी. May 29, 2012 at 7:58 AM. ई ग़ज़ल नीक लागल. May 31, 2012 at 6:30 AM.

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. बुधवार, 17 मार्च 2010. जेहनो-दिल में रेंगती हैं. जेहनो-दिल में रेंगती हैं अनकही बातें बहुत. दिन तो कट जातें हैं लेकिन सख्त हैं रातें बहुत. तुम अभी से बदगुमां हो दोस्त! ये तो इब्तिदा है. जिंदगी की राह में होंगी अभी घातें बहुत. दिल की पथरीली ज़मीं तो फिर भी खाली ही रही. कोई बतलाये कहां. संजो के रखूं , क्या करूं. देवेंद्र गौतम. प्रस्तुतकर्ता devendra gautam. लेबल: ग़ज़ल. कागज&#236...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. सोमवार, 1 मार्च 2010. फ़ना होते हुए. फ़ना होते हुए दीवार-ओ-दर की. बड़ी मुद्दत पे याद आयी है घर की. बना लेना घरौंदे इल्म-ओ-फन के. अभी कुछ खाक छानो दर-ब-दर की. खुदा रूपोश होता जा रहा है. के आंखें खुल रहीं हैं अब बशर की. रवां होता गया अपने जुनूं में. हवा जिसको नज़र आयी जिधर की. हम अपनी मंजिलों से आशना हैं. ज़रुरत क्या है हमको राहबर की. देवेंद्र गौतम. इसे ईमेल करें. नई पोस्ट. दम ले...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010. कुछ रोज आसपास रहे. कुछ रोज आसपास रहे, फिर कहां गए. खुशरंग जिंदगी के मनाज़िर कहां गए. बातिन में भी नहीं हैं बज़ाहिर कहां गए. जिनकी मुझे तलाश है आखिर कहां गए. महरूमियों के दर पे खड़े सोचते हैं हम. वो हौसले हयात के आखिर कहां गए. हर गाम पूछने लगीं सदरंग मंजिलें. नग्मे सुना रहे थे जो ताइर कहां गए. देवेंद्र गौतम. 0 टिप्पणियाँ. इसे ईमेल करें. नई पोस्ट. कागज&#2...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. रविवार, 28 फ़रवरी 2010. ज़िल्लतें कितनी सहीं. ज़िल्लतें कितनी सहीं तब जाके नाकारा हुआ. तुम न समझोगे कि मैं किस तर्ह आवारा हुआ. शाम के बुझते हुए माहौल के पेशे-नज़र. मैं भी अब वापस चला घर को थका हारा हुआ. इन दिनों हर चीज़ की तासीर उल्टी हो गयी. बर्फ के पहलू में मैं बैठा तो अंगारा हुआ. और मैं जाता कहां तकदीर का मारा हुआ. देवेंद्र गौतम. 0 टिप्पणियाँ. इसे ईमेल करें. नई पोस्ट. सदस्यत...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. शुक्रवार, 5 मार्च 2010. तुम भी बदले, हम भी बदले. तुम भी बदले, हम भी बदले, अब वो दिन वो रात कहां . मिलने को मिलते हैं लेकिन अब पहली सी बात कहां. उसकी सीप सी आंखें छलकीं, दो मोती फिर मुझतक आये. मेरे दिल का टूटा प्याला, रक्खूं ये सौगात कहां. हम सहरा वाले हैं हमसे मौसम के अहवाल न पूछ. देवेंद्र गौतम. प्रस्तुतकर्ता devendra gautam. 0 टिप्पणियाँ. इसे ईमेल करें. लेबल: ग़ज़ल. कागज&#2368...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010. हादिसा ऐसा. हादिसा ऐसा कि हर मौसम यहां खलने लगे. बारिशों की बात निकले और दिल जलने लगे. फितरतन मुश्किल था लेकिन जो हमें बख्शा गया. रफ्ता-रफ्ता हम उसी माहौल में ढलने लगे. ऐसा हो कलम की नोक बन जाये उफक. वक़्त का सूरज मेरी तहरीर में ढलने लगे. अक्ल की उंगली पकड़ ले, दिल के आंगन से निकल. देवेंद्र गौतम. प्रस्तुतकर्ता devendra gautam. लेबल: ग़ज़ल. नई पोस्ट. काग...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010. कोई क्या है, पता चलता है. कोई क्या है, पता चलता है कुछ भी? किसी की शक्ल पे लिक्खा है कुछ भी? गवाही कौन देगा अब बताओ? किसी ने भी नहीं देखा है कुछ भी. अगर ताक़त है तो कुछ भी उठा लो. कि मांगे से नहीं मिलता है कुछ भी. खयालों के उफक पे खामुशी है. न उगता है न अब ढलता है कुछ भी. देवेंद्र गौतम. प्रस्तुतकर्ता devendra gautam. 0 टिप्पणियाँ. नई पोस्ट. विजेट...यहा...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. शनिवार, 20 मार्च 2010. नवाहे-दिल में है. नवाहे-दिल में है आंखों के रू-ब-रू न सही. तेरा ही अक्स है, इस आईने में तू न सही. बहुत सताएगी मिलने की आरजू इक दिन. कि मुझको तेरी, तुझे मेरी जुस्तजू न सही. नज़र मिले न मिले फिर भी बात कर लेना. हमारे दर्मियां कुछ वज्हे-गुफ्तगू न सही. हमारे दौर की रफ़्तार तो सलामत है. दरे-खयाल पे अब दस्तके-अदू न सही. देवेंद्र गौतम. लेबल: ग़ज़ल. नई पोस्ट. काग...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. सोमवार, 8 मार्च 2010. कदम- दर-कदम कुछ. कदम- दर-कदम कुछ नसीहत रही है. बुजुर्गों की हमपे इनायत रही है. मयस्सर नहीं उनको धुंधली किरन भी. जिन्हें रौशनी की जरूरत रही है. न तहज़ीब ढूंढो कि इन बस्तियों में. न सूरत रही है न सीरत रही है. कभी बैठकर राह तकते किसी की. मगर इतनी कब मुझको फुर्सत रही है. घरोंदे बनाकर उन्हें तोड़ देना. देवेंद्र गौतम. 0 टिप्पणियाँ. इसे ईमेल करें. नई पोस्ट. कागज&...

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किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़. किताबों की दुनिया. अरे भाई साधो. अदबी-दुनिया. मंगलवार, 2 मार्च 2010. महलों से बेहतर . महलों से बेहतर होते हैं. फूस के घर भी घर होते हैं. मीठे-मीठे काट के रख दें. ऐसे भी खंज़र होते हैं. घर में दीवारें होती हैं. दीवारों में दर होते हैं. जिनपर आंख नहीं टिक पातीं. कुछ ऐसे मंज़र होते हैं. खुद पे जोर नहीं चलता तो. आपे से बाहर होते हैं. हमको खुद हैरत होती है. शाम को जिस दिन घर होते हैं. देवेंद्र गौतम. लेबल: ग़ज़ल. नई पोस्ट. कागज&...

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जनभाषाओं के साहित्य का साझा मंच. Tuesday, May 29, 2012. मन में नेह के तार बहुत बा. भोजपुरी ग़ज़ल. मन में नेह के तार बहुत बा. ई नदिया में धार बहुत बा. तनिको चूक के मौका नइखे. गरदन पर तलवार बहुत बा. सौ एके छप्पन के आगे. पर्चो भर अखबार बहुत बा. काहे गांव से भगत बा ड. गांव में कारोबार बहुत बा. के अब केकर दुःख बांटे ला. बनल रहे व्यवहार बहुत बा. मिल जाये त कम मत बुझिह. चुटकी भर संसार बहुत बा. देवेंद्र गौतम. Labels: भोजपुरी. Subscribe to: Posts (Atom). भोजपुरी. Simple template. Powered by Blogger.

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